पहाड़,पलायन और पीड़ा: बुजुर्ग महिला की अर्थी को कंधा देने तक नहीं मिला कोई पुरुष, शव उठाने भी दूसरे गांव से पहुंचे लोग

रैबार डेस्क: उत्तराखंड अपनी स्थापना के 25 वर्ष पूरे करने जा रहा है। तमाम वादों और दावों के बाद भी पहाड़ों में पलायन रोका नही जा सका है। हालांकि कभी कभी पलायन तरक्की के लिए भी होता है, लेकिन पलायन हमेशा एक दर्दनाक तस्वीर छोड़ जाता है। उजड़े घर, बंजर खेत, सूनी गलियां और वीरान गांव बस अपनों की राह ताक रहे हैं। रुद्रप्रयाग जिले के कांडई क्षेत्र में ल्वेगढ़ गांव में भी पलायन की ऐसी ही दर्दनाक तस्वीर सामने आई है। यहां अब केवल 3 महिलाएं ही निवास करती हैं। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि जब हाल ही में 90 वर्षीय सीता देवी की मृत्यु हुई, तो उनके अंतिम संस्कार के लिए चार कंधे भी न मिल सके। शव उठाने के लिए दूसरे गांव से लोगों को आना पड़ा।
लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के वीरू भड़ू कु देश..में आपने सुना होना ल्वेगढ़ का भी जिक्र आता है। लेकिन वीर-भड़ों की थाती रहा ल्वेगढ़ गांव आज पलायन से वीरान है। हालात ऐसे हैं कि एक वृद्ध औरत की मौत होने पर शव उठाने के लिए चार कंधे भी जुटाना मुश्किल हो गया है। उनके शव को घाट तक पहुंचाने के लिए अगले दिन पड़ोसी गांव के लोग पहुंचे, तब जाकर अंतिम संस्कार हो पाया। गांव में कोई पुरुष न होने के कारण शव एक दिन तक घर में ही रखा रहा। जब पास के गांवों— कलेथ, पांढरा मड़गांव और मलछोड़ा— को सूचना मिली, तब वहां से ग्रामीण आए और दूसरे दिन जाकर अंतिम संस्कार हो पाया। मृतका का बेटा मानसिक रूप से अस्वस्थ है, जिससे परिवार की हालत और भी दयनीय हो गई है।
ल्वेगढ़ गांव में कभी 15–16 परिवार निवास करते थे, लेकिन पलायन के कारण आज ये गांव पूरा वीरान हो चुका है। कांडई ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले इस गांव में अब भी जीवन की बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। यहां न सड़क, न पेयजल, न स्वास्थ्य सुविधा और न ही शिक्षा की उचित व्यवस्था है, ऐसे में यहां कई सालों से पलायन लगातार जारी है। ल्वेगढ़ गांव का रास्ता बेहद ख़राब और खतरनाक है। गांव आज तक सड़क मार्ग से नहीं जुड़ पाया है। पेयजल की समस्या भी गंभीर बनी हुई है। ग्रामीणों के अनुसार, बच्चों को पढ़ने के लिए 2 से 4 किलोमीटर दूर स्थित स्कूलों तक पैदल जाना पड़ता है और आपात स्थिति में स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं है। उत्तराखंड में ल्वेगढ़ गांव के अलावा और भी कई ऐसे गांव हैं जो पलायन, उपेक्षा और संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं। कभी जीवन से भरे इन गांवों की खामोशी अब पहाड़ की एक गहरी सामाजिक पीड़ा बन चुकी है।