पंचम नवरात्रि : यहां इंद्र को पाने के लिए शचि ने किया कठोर तप, जानिए मां ज्वाल्पा की महिमा
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया। शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।
रैबार डेस्क : Navratri पर मां दुर्गा का पंचम रूप स्कंदमाता (Skand Mata) रूप में जाना जाता है। भगवान स्कंद कुमार यानि कार्तिकेय की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता नाम से जाना जाता है। मां का वर्ण पूर्णत: शुभ्र है और कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं। इसी से इन्हें पद्मासना की देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है। स्कंदमाता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी है। इनकी उपासना करने से साधक अलौकिक तेज की प्राप्ति करता है। यह अलौकिक प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है। एकाग्रभाव से मन को पवित्र करके मां की स्तुति करने से दु:खों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है। आइए पांचवें नवरात्रि पर आपको स्द्धपीठ मां ज्वाल्पा ( Jwalpa Devi) के दर्शन करवाते हैं।
सिद्धपीठ ज्वाल्पा धाम उत्तराखंड के पौड़ी-कोटद्वार नेशनल हाइवे पर नयार नदी के तट पर स्थित स्थित है। यहां आने वाले भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होती है। इस सिद्धपीठ में चैत्र और शारदीय नवरात्रों में विशेष पाठ का आयोजन होता है। इस मौके पर देश-विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। मां ज्वाल्पा थपलियाल और बिष्ट जाति के लोगों की कुलदेवी है। जबकि अणेथ गांव के अणथ्वाल ब्राह्मण मां ज्वाल्पा के पुजारी होते हैं।
मान्यता
ज्वाल्पा धाम का पौराणिक महत्व भी है। स्कंदपुराण के अनुसार, सतयुग में दैत्यराज पुलोम की पुत्री शची ने देवराज इंद्र को पति रूप में प्राप्त करने के लिए नयार नदी के किनारे इसी जगह पर एकांत वन में मां पार्वती का कठोर तप किया था। मां पार्वती शची की भक्ति से प्रसन्न हुई और उसे ज्वाला के रूप में यहा दर्शन देते हुए मनोवांछित वरदान दिया। ज्वाला रूप में दर्शन देने के कारण इस स्थान का नाम ज्वालपा पड़ा। तभी से अविवाहित कन्याओं के लिए स धाम का खास महत्व है। लड़कियां सुयोग्य वर प्राप्ति की कामना से भी यहां आती हैं।
एक अन्य मान्यता के अनुसार मां ज्वाल्पा देवी मंदिर स्थल को पुरातन काल में अमकोटी के रूप में जाना जाता था। जो कफोलस्यूं, खातस्यूं, मवालस्यूं, रिंगवाड़स्यूं, घुड़दौड़स्यूं, गुराड़स्यूं पट्टियों के विभिन्न गांवो के ग्रामीणों के रुकने (विसोणी) का स्थान था। एक दिन एक कफोला बिष्ट कोटद्वार दुगड्डा मंडी से ढाकर (प्राचीनकाल में मंडियों से एक साथ सामान लादकर लाना) लेकर आ रहा था। उसे थकामन महसूस हुई तो विश्राम के लिए नयार नदी के तट पर अमकोटी ना मकी जगह पर विश्राम करने लगा। उसने अपना सामान नीचे रख दिया। इस दौरान वह नित्यकर्म के लिए चला गया। लेकिन जैसे ही लौटकर सामान उठाने लगा वह बहुत भारी होता चला गया। वह इसे उठा नहीं सका। कट्टा खोलने पर उसने देखा कि उसमें मां की मूर्ति थी। जिसके बाद वह मूर्ति को उसी स्थल पर छोड़कर चला गया। एक दिन अणेथ गांव के दाताराम के सपने में मां ज्वाल्पा ने दर्शन देकर कहा कि उक्त जगह पर मेरी मूर्ति है, वहां पर मेरा मंदिर बनाया जाए। कालांतर मे इसी जगह पर ज्वाल्पा मां का मंदिर स्थापित हुआ।
18वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह ने मंदिर को 11.82 एकड़ सिंचित भूमि दान दी थी। ताकि यहां अखंड दीपक हेतु तेल की व्यवस्था के लिए सरसों का उत्पादन हो सके। कहा जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने यहां मां की पूजा की थी, तब मां ने उन्हे दर्शन दिए।
सिद्धपीठ मां ज्वाल्पा देवी मंदिर की स्थापना 1892 में हुई थी। इस एक मंजिला मंदिर में माता अखंड जोत के रूप में गर्भ गृह में विराजमान है। मंदिर परिसर में यज्ञ कुंड भी है। मां के धाम के आसपास हनुमान मंदिर, शिवालय, काल भैरव मंदिर, मां काली मंदिर भी स्थित हैं।