छठा नवरात्र: गढ़ नरेशों की आराध्य देवी राज राजेश्वरी, देश विदेश भेजी जाती है हवन यज्ञ की भभूत
चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना। कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥
रैबार डेस्क : Navratri पर मां दुर्गा के छठे रूप को मां कात्यायनी (Katyayini) के नाम से जाना जाता है। इनकी उपासना से जीवन के चारों पुरुषार्थों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की आसानी से प्राप्त हो जाती है। स्कंद पुराण में कहा गया है कि देवी के कात्यायनी रूप की उत्पत्ति परमेश्वर के नैसर्गिक क्रोध से हुई थी। वहीं वामन पुराण के अनुसार सभी देवताओं ने अपनी ऊर्जा को बाहर निकालकर कात्यायन ऋषि के आश्रम में इकट्ठा किया और कात्यायन ऋषि ने उस शक्तिपूंज को एक देवी का रूप दिया। जो देवी पार्वती द्वारा दिए गए सिंह (शेर) पर विराजमान थी। कात्यायन ऋषि ने रूप दिया इसलिए वो दिन कात्यायनी कहलाईं और उन्होंने ही महिषासुर का वध किया। छठवें नवरात्रि पर आज आपको गढ़वाल क्षेत्र में रजवाड़ों की आराध्य देवी मां राज राजेश्वरी (Raj Rajeshwari) के दर्शन करवाते हैं।
राजराजेश्वरी को धन, वैभव, योग और मोक्ष की देवी कहा जाता है। जिसे राजा महाराज भी अपनी कुल देवी मानते थे। मां राज राजेश्वरी का धाम गढ़ नरेशों की राजधानी देवलगढ़ में स्थित है। यहां चैत्र व शारदीय नवरात्रों के अवसर पर विशेष पूजा अर्चना विधि विधान से की जाती है। वहीं 14 अप्रैल को हर वर्ष (बैसाखी) विखोत मेले का आयोजन विशेष आकर्षण का केंद्र रहता है। दस महाविद्याओं में तृतीय महाविद्या षोढषी को मां राजराजेश्वरी कहा जाता है। मां राजराजेश्वरी को महात्रिपुरा सुंदरी, कामेशी, ललिता, त्रिपुर भैरवी आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
14 वीं शताब्दी में देवलगढ़ के सिद्धपीठ मां राजराजेश्वरी की स्थापना 1512 में गढ़वाल नरेश राजा अजयपाल ने की थी। उन्होंने मां के मंदिर में उन्नत श्रीयंत्र स्थापित किया था। मां राजराजेश्वरी के तीन मंजिला मंदिर में राजा ने सबसे ऊपरी कक्ष में श्रीयंत्र, महिष मर्दिनी यंत्र, कामेश्वरी यंत्र, मूर्तियां व बरामदे में बटुक भैरव की स्थापना की है। साथ ही मंदिर में भगवान बदरीनाथ की डोली, केदारनाथ की डोली, दक्षिण काली की डोली, शिवलिंग भी स्थापित है।
मंदिर को गढ़वाल नरेश अजयपाल ने गांवों के पुराने पठाल वाले भवन के रूप में बनाया गया है। जिसमें राजराजेश्वरी देवी की की पूजा होती है।
मान्यता
केदार खंड में राजगढ़ी देवलगढ़ का उल्लेख है कि चित्रवती नदी व ऋषिगंगा के मध्य ऊंची चोटी पर देवताओं का गढ़ स्थित है। जिसे पुरातन काल तक द्यूलगढ़ के नाम से जाना जाता था। जो बाद में देवलगढ़ के नाम से प्रचलित हुआ। मंदिर में 10 सितंबर 1981 से यहां अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित है। औणी के उनियाल मां राजराजेश्वरी के उपासक हैं। मां के उपासक रहे डंगवालों ने 1948 के करीब मां की आराधना का पूजा जिम्मा उनियालों को सौंप दिया था। मां राजरोजश्वरी में भक्तों की बड़ी आस्था है। मां अपने भक्तों व श्रद्धालुओं को धनधान्य से भर देती है। बाद में गढ़ नरेशों की राजधान टिहरी शिफ्ट होने से इसी मंदिर से एक जोत टिहरी के जलेड गांव में स्थापित की गई।
मॉ के दरबार जो भी सच्ची मन्नतें लेकर आता है, उसकी मन्नतें पूर्ण होती है। मंदिर के पुजीर बताते हैं कि यहा स्थित श्रीयंत्र के दर्शन औऱ मन्नत मांगने के लिए देश विदेश से लोग पहुंचते है। यहा होने वाले हवन की राख का भी अलग महत्व है। पुजरी बताते हैं कि पोस्ट ऑफिस के जरिए हवन-यज्ञ की भभूत को हर साल विदेशों में भी भेजा जाता है। जब विदेशों से लोग गांव आते है, तो मंदिर के दर्शनों के लिए जरूर पहुंचते है। कहा कि मंदिर में पहुंचने के बाद लोग राख के रूप में अपने पास ले जाते है।