2024-04-26

सप्तम नवरात्रि: कालीमठ में कालरात्रि के रूप में मौजूद हैं जगदंबा, यहीं किया था शुंभ, निशुंभ और रक्तबीज का वध

KALIMATH-MATA

KALIMATH-MATA

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता। लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त शरीरिणी॥वामपादोल्लसल्लोह लताकण्टकभूषणा। वर्धन मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥

रैबार डेस्क :  मां दुर्गा के सातवें रूप (Seventh Navratri) को कालरात्रि (Kalratri) के नाम से जाना जाता है। नवरात्र के सातवें दिन इनकी पूजा होती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी के इस रूप की पूजा करने से दुष्टों का विनाश होता है। मां के इस स्वरूप को वीरता और साहस का प्रतीक माना जाता है। सातवें नवरात्रि पर आज आपको दर्शन करवा रहे हैं, माता कालरात्रि के साक्षात स्वरूप कालीमठ धाम (Kalimath) के। जहां की मान्यता है कि माता ने रक्तबीज जैसे असुर का वध इसी स्थान पर किया था।

कालीमठ माता के धाम में मां काली के साक्षात रूप में मौजूद होने का एहसास होता है। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में केदारनाथ की चोटियों से घिरा हिमालय में सरस्वती नदी के किनारे स्थित प्रसिद्ध शक्ति सिद्धपीठ श्री कालीमठ मंदिर स्थित है। यह मंदिर समुन्द्रतल से 1463 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

इस मंदिर की खास बात यह है कि इस मंदिर में देवी की मूर्ति की नहीं बल्कि एक कुंड की पूजा कि जाती है। यह कुंड रजतपट श्री यन्त्र से ढका हुआ है। इस मंदिर में तंत्र विद्याओं का वास है और मंदिर को पूरे साल में शारदीय नवरात्री में अष्टमी के दिन खोला जाता है, जहां अष्टमी की मध्यरात्रि के दिन कुछ ही मुख्य पूजारी रहते हैं जो इस कुंड कि पूजा करते हैं। साथ ही इस दिन दिव्य शक्ति के लिए मंदिर को नवरात्रि के दिन खोला जाता है। स्कंदपुराण के अंतर्गत केदारनाथ के 62वें अध्याय में इस मंदिर का उल्लेख किया गया है।

मान्यता

देवी भागवत कथा में लिखा है कि इसी क्षेत्र के मनसूना स्थान में दो बड़े बलशाली राक्षस शुंभ और निशुंभ रहते थे। इन दोनों राक्षसों ने जनता को सभी हदों तक प्रताड़ित किया और कई निर्दोष लोगों को मार डाला। जिसके बाद वे देवताओं को मारने के लिए भी उतारू हो गए।  शुंभ-निशुंभ के भय से सभी देवताओं ने देवी की आराधना की। इस पर देवी 12 वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हुई और फिर शुरू हुआ राक्षसों का संहार। कन्या राक्षसों का वध करती चली गर्इ। सबसे पहले चंड और मुंड राक्षसों का वध किया, फिर रक्तबीज का वध किया। माता ने शुंभ निशुंभ दोनों के सिर एक कुंड में गाड़ दिए, जो कुंड आज भी कालीमठ के मुख्य मंदिर के अंदर देखा जा सकता है। रक्तबीज के वध के बाद उसका रक्त जमीन पर न गिरे , इसलिए महाकाली ने मुंह फैलाकर उसके रक्त को चाटना शुरू किया। बताया जाता है कि रक्तबीज शिला नदी किनारे आज भी स्थित है।

कालीमठ में तीन अलग-अलग भव्य मंदिर है जहां मां काली के साथ माता लक्ष्मी और मां सरस्वती की पूजा की जाती है। कालीमठ मंदिर में 8 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित एक दिव्य चट्टान भी है जहां आज भी मां काली के चरण पादुका के निशान मौजूद हैं और इस चट्टान को काली शिला के नाम से भी जाना जाता है। मां काली के पैरों के निशान से जुड़ी एक रोचक बात है ऐसा कहा जाता है कि मां दुर्गा शुम्भ, निशुम्भ और रक्तबीज दानव का संहार करने के लिए कालीशीला में 12 वर्ष की बालिका रूप में प्रकट हुई थी।

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