2024-04-19

तृतीय नवरात्रि: यहां पुजारी आंख पर पट्टी बांध कर करते मां की पूजा, मां चंद्रबदनी की महिमा जानें

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पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता। प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥

रैबार डेस्क : शारदीय नवरात्रि (Navratri ) का आज तीसरा दिन है। तीसरा नवरात्रि माता चंद्रघंटा (Chandraghanta) को समर्पित है। असुरों के विनाश हेतु मां दुर्गा से देवी चन्द्रघण्टा तृतीय रूप में प्रकट हुई। देवी चंद्रघंटा ने भयंकर दैत्य सेनाओं का संहार करके देवताओं को उनका भाग दिलवाया। देवी चंद्रघंटा मां दुर्गा का ही शक्ति रूप है। जो सम्पूर्ण जगत की पीड़ा का नाश करती हैं। तृतीय नवरात्रि पर आज हम आपको मां दुर्गा के दिव्यधाम मां चंद्रबदनी (Chandrabadni Mata) के दर्शन करवा रहे हैं, जहां की महिला बड़ी निराली है।

उत्तराखंड में देवप्रयाग से 35 किलोमीटर दूर चंद्रकूट पर्वत पर सिद्धपीठ माता चंद्रबदनी मंदिर स्थित है। जगत गुरु शंकराचार्य ने श्रीयंत्र से प्रभावित होकर चन्द्रकूट पर्वत पर चन्द्रबदनी शक्ति पीठ की स्थापना की थी। इस देवस्थल की एक खास बात है। कहा जाता है कि इस मंदिर में देवी चन्द्रबदनी की मूर्ति नहीं है। यहां सिर्फ देवी का श्रीयंत्र पूजा जाता है। पुजारी भी आंखों पर पट्टी बांधकर मां चंद्रबदनी को स्नान कराते हैं। मंदिर में देवी मां का श्रीयंत्र है।

मंदिर के गर्भगृह पर एक शिला पर उत्कीर्ण इस श्रीयंत्र के ऊपर चांदी का बड़ा छतर है। इस सिद्धपीठ में आने वाले श्रद्धालुओं को मां कभी खाली हाथ नहीं जाने देती।

मान्यताएं

कहा जाता है कि माता सती का बदन भाग यहां पर गिरा था। इस वजह से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है। इस मंदिर के पुजारी भी आंखों पर पट्टी बाँध कर माँ चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं।

यह भी मान्यता है कि जब भगवान शंकर सती के देह को लेकर कई जगह घूमने लगे तो विश्राम के लिए चंद्रकूट परव्त पर आ गए। सती के विरह से व्याकुल भगवान शिव यहां सती का स्मरण कर सुध-बुध खो बैठे। इस पर महामाया सती यहां अपने चंद्र के समान शीतल मुख के साथ प्रकट हुई। इसको देखकर भगवान शंकर का शोक मोह दूर हो गया और प्रसन्नचित हो उठे। देव, गंर्धवों ने महाशक्ति के इस रूप का दर्शन कर स्तुति की। इसके बाद से यह तीर्थ चंद्रबदनी के नाम से विख्यात हुआ।

चन्द्रबदनी मंदिर 8वीं सदी का बताया जाता है। मंदिर में माँ चन्द्रबदनी की मूर्ति ना होकर श्रीयंत्र ही स्थापित है।

यहां की लोक मान्यता है कि एक बार किसी पुजारी ने भूल से अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी। इसके बाद पुजारी अंधा हो गया था। इस वजह से तबसे यहां आंख पर पट्टी बांधकर ही मूर्ति के दर्शन किए जाते हैं।

महाभारत की एक कथा के अनुसार चंद्रकूट पर्वत पर अश्वत्थामा को फेंका गया था। चिरंजीवी अश्वत्थामा अभी भी हिमालय में विचरते हैं यह माना जाता है।

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